कर्म-पाश में बधे हुए हैं, प्राणी जग के सारे ।
विजय सभी से प्राप्त किया, और अपने से हारे ।।
भव बंधन के संचालन को, ऐसा रचा विधाता ।
झूझ रहा अज्ञान तिमिर में, प्राणी समझ न पाता ।।
प्रारब्ध रहा जिसका जैसा, वैसे बनकर हम आते ।
किसी के हिस्से फूल हैं मिलते तो किसी को मिलते कांटे ।।
क्यूँ कोई सम्पूर्ण हुआ है,कोई हुआ अधुरा ।
कोई जग को रोशन करता, किसी को ग्रसित अँधेरा ।।
कोई तो मर्मज्ञ हुआ है,किसी की बुद्धि अविकसित ।
किसी की वाणी में पटुता है,कर न सके कोई संबोधित ।।
कोई मालामाल हुआ है,कोई हुआ कंगाल ।
कोई रोटी को तरसे तो सजे किसी के थाल ।।
कोई बधिर दृष्ठीन है कोई लंगड़ा लूला ।
जैसी करनी वैसी भरनी ये है प्रभु की लीला ।।
नियत कर्म से चुक गए तो भवसागर में डूब गए ।
लहरों में थपेड़े खायेंगे और दूर किनारे छूटेंगे ।।
विजय सभी से प्राप्त किया, और अपने से हारे ।।
भव बंधन के संचालन को, ऐसा रचा विधाता ।
झूझ रहा अज्ञान तिमिर में, प्राणी समझ न पाता ।।
प्रारब्ध रहा जिसका जैसा, वैसे बनकर हम आते ।
किसी के हिस्से फूल हैं मिलते तो किसी को मिलते कांटे ।।
क्यूँ कोई सम्पूर्ण हुआ है,कोई हुआ अधुरा ।
कोई जग को रोशन करता, किसी को ग्रसित अँधेरा ।।
कोई तो मर्मज्ञ हुआ है,किसी की बुद्धि अविकसित ।
किसी की वाणी में पटुता है,कर न सके कोई संबोधित ।।
कोई मालामाल हुआ है,कोई हुआ कंगाल ।
कोई रोटी को तरसे तो सजे किसी के थाल ।।
कोई बधिर दृष्ठीन है कोई लंगड़ा लूला ।
जैसी करनी वैसी भरनी ये है प्रभु की लीला ।।
नियत कर्म से चुक गए तो भवसागर में डूब गए ।
लहरों में थपेड़े खायेंगे और दूर किनारे छूटेंगे ।।
No comments:
Post a Comment